एक पागल की जीवन गाथा।

जिसने परमात्मा की प्राप्ति के लिए सभी कुछ किया जो जो धर्म गुरुओं ने बताय।   मंदिरों में आरती करना, पूजा करना, तीर्थों में जाना , गंगा स्नान ,  व्रत , दीक्षा , जो रोज रोज बढ़ती गई। रोज की सौ-सौ  माला का जाप होता गया। खाना-पीना छोड़ा।  5 वर्ष का उपवास ,भाति भाति की साधना है। जो जो भी जिस जिस गुरु ने कहा वह वह पूरी तन्मयता से किया लेकिन परमात्मा वह तो नहीं मिला। 

जब उन गुरुओं को भी ना मिला जिन्होंने यह समझाया तो वह कैसे किसी दूसरे को दे पाते हैं। खैर जीवन निकलता गया। ऊपर से तो धार्मिक होने का ढोंग बढ़ता गया और भीतर से यह धारणा भी बढ़ती गई कि भीतर तो अभी तक खाली है। भीतर तो अंधेरा है। आधी से ज्यादा उम्र समाप्त हो गई लेकिन परमात्मा नहीं मिला।

और जब तक यह आग भीतर ना हो तब तक तुम जलोगे कैसे।  और जब तक तुम ना जलो , तुम भस्मीभूत  ना हो। तब तक तुम्हारी मैं कैसे मिटेगी? तुम्हारा अहंकार कैसे समाप्त होगा और बिना मैं के समाप्त किए कहीं तू उतरता है क्या?

इसी तरह समय बीतता गया अनेक गुरु आए और चले गए। कभी कृष्णा  भक्ति की संस्थाओं में जाकर माथा रगड़ा और जब उनके गुरुओं से परमात्मा के विषय में पूछा तो जवाब मिला जाओ। मंदिर के भीतर जाकर देख लो। कलयुग में भगवान मूर्ति के रूप में ही दिखते हैं तो परमात्मा ने उस चोला धारी , डंडा धारी गोपाल स्वामी को उत्तर दिया कि अगर मूर्ति ही परमात्मा है तो मूर्ति को तो मैं खरीद कर घर में रख लूंगा तो क्या मैं कह सकता हूं कि परमात्मा मिल गया। या मैंने परमात्मा को पा लिया या मैंने परमात्मा का दीदार कर लिया।

 उस छोला धारी सन्यासी के पास कोई भी उत्तर नहीं था। उत्तर होता भी कैसे वह भी समझता था कि यह परमात्मा नहीं है लेकिन दुकान भी तो चलानी थी। गद्दी भी तो संभाल नहीं थी। 

फिर परमात्मा के हाथ एक गीता थमा दी गई। यह लो इससे उत्तर खोज लो। इसमें सभी उत्तर मिलेंगे। परमात्मा ने गीता भी पड़ी कई बार पढ़ी। लेकिन पूरी गीता किसने लिखी? उसी के द्वारा व्याख्या की गई और पूरी व्याख्या में एक ही बात पर मुख्य थी कि  इस गीता से पहले वाली जितनी भी गीता आज तक लिखी गई थी, वह गलत है और यही ठीक है।  जैसा किसी ने गीता के ऊपर यथारूप लिखा है। किसी ने वास्तविक रूप लिखा। किसी ने सही लिखा भांति-भांति  की भ्रांतियां लोग स्वयं ही पाले रहते हैं।

 जो गुरु केवल इतना ही कह रहा है कि मैंने जो लिखा वही सत्य है और बाकी सभी का लिखा असत्य है शायद उसे भी अभी तक स्वयं ही सत्य का नहीं पता।  सत्य उसे भी नहीं मिला। इस प्रकार कई  वर्ष बीत गए। माला की गिनती बढ़ने लगी। सिर की चोटी भी बढ़ने लगी। गले की कंठी के चक्र भी बढ़ने लगे। माला की मोटाई भी बढ़ने लगी, लेकिन परमात्मा आसपास भी नहीं था।

वह तो शायद किसी दूर ग्रह पर बैठा था जो शायद ही मरने के बाद भी मिले या कल्पना ही रहे। अगर वह धारणा सत्य है कि कण-कण में परमात्मा है। अगर वह धारणा सत्य है कि जर्रे-जर्रे में खुदा है तो मृत्यु के बाद किसी दूसरे ग्रह पर जाकर मिलता है। यह तो झूठ है। दोनों धारणाएं कैसे सत्य हो सकती हैं। एक धारणा कहती है कि परमात्मा यही है कण-कण में और दूसरी धारणा कहती है कि वो दूर किसी ग्रह पर है।  कोई कहता है, तुम्हारे भीतर है कोई कहता संसार में है।

कोई कहता है, बैकुंठ में है यंहा  नहीं है। एक धारणा कहती है वो गोलोक में है।

परमात्मा को आखिर ज्ञात हो गया कि इन लोगो के पास उनके प्रश्नो के उत्तर नहीं है।

अब परमात्मा ने रुख किया उत्तराखंड की पहाड़ियों का।  वंहा भी कई धर्म गुरु मिले, कई साधु संत मिले , कई गुरु मिले, लेकिन वह भी अलग ही प्रकार के थे। कोई केवल जटाओं को बढ़ाने को ही धार्मिक होना माने बैठा था। कोई केवल तिलक लगाने को धार्मिक होना माने बैठा था। कोई घुंघराले बालों को धार्मिक होना माने बैठा था और कोई लाल कपड़ों को ,तिलक को, कमंडल को ,धार्मिक होना माने बैठा था। सभी वेशभूषा में ही भरमाये हुए थे। कोई नागा होकर शरीर को यातना दे रहा था तथा जड़ बुद्धि हुए बैठा था।

जिसके शरीर को सर्दी गर्मी नहीं लगती जिसे शरीर से दुर्गंध आने का भी भान नहीं होता जिसके हाथों और पैरों की चमड़ी इतनी मोटी हो गई कि उसमें कंकड़ पत्थर के चुभने का भी असर नहीं होता? उसे जड़ बुद्धि नहीं तो और क्या कहा जाए? यानी ऐसे तो वह जानवर जिसकी चमड़ी मोटी है, हाथी भैसा  इत्यादि सभी को धार्मिक मान लेना चाहिए क्या?

नही।  ऐसा धार्मिक भी परमात्मा को नहीं बनना था। किसी ने कहा, भोजन छोड़ने से परमात्मा मिलता है तो वह भी 5 वर्ष करके देख लिया। शरीर हल्का हो गया और भोजन ना करने से रोग मुक्त भी हो गया था। फुर्तीला भी हो गया था लेकिन परमात्मा का कहीं भी अता-पता नहीं था। हां, वहां ऐसे ऐसे महात्मा भी मिले जो अहँब्रम्हास्मि का जाप कर रहे थे। पूछा तो ज्ञात हुआ कि जब वह 10 -12 वर्ष  के थे तब से कर रहे हैं। 12 वर्ष से एक व्यक्ति जप कर रहा है। आज 80 वर्ष का हो गया है। एक ही शब्द अहँब्रम्हास्मि कि मैं ब्रम्ह  हूं।

70 वर्ष होने वाले हैं। अभी तक धर्म का अनुभव नहीं हुआ। कैसा साधन है यह 70 वर्ष तक किया लेकिन अभी तक धर्म नहीं मिला। अभी तक अनुभव नहीं हुआ और अगर हो ही गया तो अब क्यों जपे जा रहे हो? यानी अभी भी भ्रम है। अभी भी भ्रम में ही जीवन चले जा रहे हैं। अभी भी अंधेरे में ही दरवाजा टटोले जा रहे हैं। मतलब यह साधना भी ठीक नहीं है। जिस किसी बुद्ध ने यह उद्घोष किया होगा। अहम् ब्रह्मास्मि तो वह घोष उसके भीतर से निकला होगा क्योंकि उसने अनुभव किया होगा। लेकिन? जड़मति। वह कैसे समझेगा? जड़मति तो केवल शब्द रटेगा ।

कोई गंगा की आरती कर रहा था, कोई योग कर रहा था। कोई आंखें बंद कर ध्यान के भ्रम में बैठा था लेकिन कोई भी तो उस परमात्मा को देख नहीं पा रहे था । समझा भी नहीं पा रहा था कि वह कैसे दिखेगा? कोई दसोहम की माला फेर रहा था यानी हम परमात्मा के दास हैं। मान रहा था कि दास होना ही हमारा  धर्म है। और यही मान रहा था कि परमात्मा मृत्यु पर्यंत किसी अन्य ग्रह पर बैठा मिलेगा।

सभी तो कहते हैं कि वह दयालु है, अकारण ही कृपा करता है।  अन्य धर्म वाले भी यही कहते हैं बिस्मिल्लाह ए रहमान ए रहीम तो कैसी कृपा है जो सामने आकर भी नहीं करता। कुछ समझ नहीं आता कहीं तो कुछ भेद है। कहीं तो ऐसी भाषा है जिसे मनुष्य समझ नहीं पा रहा है।

जिस कोडिंग को डिकोडिंग नहीं किया जा पा रहा है। कुछ ना कुछ भाषा में दोष है।

और सत्य तो ये है कि भाषा में भी दोष नहीं है, समझने में दोष है। परमात्मा यह तो जान चुके थे कि कुछ ऐसा है जो नहीं समझा जा पा रहा है। कोई शिवोहम की माला फेर रहा था लेकिन शिव नहीं बन पाया। कोई अहम् ब्रह्मास्मि की माला फेर रहा था, लेकिन अभी तक भी ब्रम्ह का अनुभव नहीं कर पाया था। कोई सोअहं की माला फेर रहा था लेकिन उससे भी कुछ नहीं हुआ। राम राम, कृष्ण कृष्ण ,शिव शिव सभी मालाएं व्यर्थ होती गई थी।

साले कारतूस खाली निकले। जिन से मैं को मारा जा सके, ऐसा एक भी जिंदा कारतूस नहीं निकला। सारे हथियार चला लिए। आखिर परमात्मा जान चुके थे कि यह मार्ग है भी नहीं। अहम् को समाप्त करने का यह तो वैसा ही मार्ग है

जैसा व्यवहार हम पशुओं के साथ करते हैं। ताड़ना देना।  तो जड़मति ने स्वयं को ताड़ना देना सताना आरंभ कर दिया। परमात्मा ! उनको तो यह हिंसा का मार्ग लगा भांति भांति के उपाय देखे, लेकिन कोई भी महात्मा ऐसा नहीं मिला जिसकी आंखों में वह परमात्मा ताकता झांकता दिखे।  कुछ जड़मति बने रहे, कुछ धार्मिक चोले की आड़ में अपराधी थे

जो अपना वेशभूषा बदल कर अपना अपराध छुपाते रहे, वह भी वही थे। कुछ स्वयं का पेट पालने के लिए ही धार्मिक बने और कुछ तो ऐसे मिले जिनके पास कुछ शमशान की क्रियाएं थी। उन्हीं से लोगों को सम्मोहित कर उनका धन लूटने के लिए ही महात्मा का वेष धरे बैठे थे।

एक बात बिल्कुल सामान थी सभी में कि धार्मिक होने से ज्यादा महत्व सभी इस बात को दे रहे थे कि धार्मिक दिखा कैसे जाए? कुछ लाल कपड़े पहनकर ,मालाएं पहनकर ,तिलक लगाकर ,जनेऊ ,चोटी धारण कर स्वयं को धार्मिक मानकर खुश हो रहे थे। कुछ सफेद टोपी पहनकर हरा गमछा लेकर स्वयं को धार्मिक माने बैठे थे। कोई क्रॉस धारण किए और कुछ पगड़ी पहने हुए स्वयं को धार्मिक माने बैढा था ।

पूरी दुनिया धार्मिक होना चाहती है लेकिन सभी एक बात भूल जाते हैं। कि वह परमात्मा कहां है, वह खुदा कहां है जिसकी बात कृष्ण ,बुद्ध ,महावीर ,मोहम्मद ,जीसस ,नानक ,कबीर करते थे।

वह कहां है जो इन बुद्धौ  की आंखों में झांकता दीखता था, वह दीवानापन कहां है, वह पागलपन कहां है जो इन बुद्धौ  में था? भटकते भटकते एक और तांत्रिक भी मिला। अघोरी मिला। उसने भी कई मंत्र जप दिए और मंत्र जप करवाए । उसने कहा कि ध्यान में  मुर्दे की छाती पर बैठकर यह मंत्र जप करो और परमात्मने ने वो भी किया । उसने कहा, ध्यान में मुर्दे का मांस भी खाना पड़ेगा। मदिरा भी ध्यान में पीनी पड़ेगी।  सभी जगह से हारा हुआ क्या ना करता यह भी किया।

सभी कुछ किया ध्यान में जो जो कहा गया और आखिर अंत में पता चला कि वह मूढ़ तांत्रिक आखिर में  किसी भूत की सिद्धि करवाना चाहता था। यह पहली घटना थी जीवन की जब परमात्मा ने जीवन में भूतो और  और प्रेतों का साक्षात्कार किया तथा सौ-सौ  फुट के कई व्यक्ति भी देखें। फिर उस तांत्रिक का सारा राज खुल चुका था कि उसका धर्म से कोई भी लेना देना नहीं है।

उसका परमात्मा से कोई भी लेना देना नहीं था। वह तो एक बहुत ही छोटा सा घटिया व्यक्ति था जो भूत-प्रेत की सिद्धि कर  लोगों को भ्रमित कर उनका धन लूटता  था और अपना तथा अपनी बीवी का और अपनी बेटी का पेट पालता था। बाद में पता चला उसका गुरु भी यही करता था और दिखावा धार्मिक होने का करता था जैसा सभी लोग कर रहे हैं।

अब तक जितने भी व्यक्ति मिले थे, सभी में एक ही बात मुख्य थी कि कोई भी स्वयं अपने लिए रोटी नहीं कमाना चाहता। वह सभी इस वेशभूषा को केवल इसलिए पहने हुए थे ताकि लोग धार्मिक समझे और दान चढ़ावा आये । और अगर ध्यान से देखोगे तो तुम भी पाओगे की सभी धर्मों के धर्मगुरु केवल वेशभूषा से ही तो धार्मिक बने हुए हैं।  उनका मुख्य लक्ष्य केवल अपने चरण पुजवाना तथा धार्मिक कलवाना ही तो है ताकि धन मिले और घर बार बढ़ता रहे भंडार भरते रहे ।

लेकिन जिसे वास्तव में ही परमात्मा की प्यास लगी हो, वह कहीं रुकता है। अभी तक भागते भागते शायद 30 वर्ष हो चुके थे। आखिर में एक और  निराशा हाथ लगी। कोई ऐसा ना मिला जो यह दावा करता कि मेरे कहे अनुसार केवल 1 वर्ष चलो, मैं परमात्मा दिखा सकता हूं। आखिर परमात्मा जो  अब तक बहुत कुछ देख चुके थे। बहुत उपाय बहुत मालाएं भी फैल चुके थे। लेकिन उस परमात्मा का ,उस खुदा का कहीं भी पता ठिकाना नहीं था जिसकी प्यास लगी थी।

तो सोचा कि शायद सारे ही धर्म शास्त्र झूठ बोलते हैं सारे ही बुद्ध झूठ ही बोलते हैं। शायद परमात्मा ,ईश्वर, अल्लाह गॉड ,खुदा ऐसा कोई व्यक्ति ही ना हो। ऐसी कोई वस्तु को कल्पित नाम ही गढ़ा गया हो। हो सकता है पूरी दुनिया ही भ्रम में हो और उसे ढूंढ रही हो जो है ही नहीं।

परमात्मा भी अब शांति से बैठ गए। अब कोई दौड़ ही नहीं बची थी जीवन में अब कोई मंजिल नहीं बची थी , अब कोई खोज ही नहीं बची थी। जीवन में अब कहीं जाना नहीं था। ना स्वर्ग पाना था ,ना मोक्ष, ना मुक्ति ,ना बैकुंठ ,ना किसी को पाना था, ना ईश्वर ,ना परमात्मा ,ना खुदा। परमात्मा के लिए सभी मिट गए थे। बस एक ही काम था। रात को लंबी चादर तान कर सोना दिन में खाना, पीना और पार्कों में जाकर विश्राम करना अपना अपना काम धंधा करना और कोई दौड़ नहीं बची थी। कोई अभिलाषा भी नहीं थी। कोई इच्छा भी नहीं थी।

अंत में परमात्मा ने सारी मालाये फेंक दी। कंठी ,जनेऊ तोड़ कर फेंक दिए , चोटी कटवा दी । तिलक वगैरह छोड़ दिए गए।  कोई ऐसा निशान ना बचा जिससे यह धारणा घर करें कि मैं धार्मिक हूं। जब परमात्मा का साक्षात्कार ही नहीं हुआ तो कैसा धार्मिक? जब ईश्वर ही नहीं मिला तो कैसा धार्मिक?

अब जीवन में कुछ भी पाना शेष ना था , कहीं पहुंचना भी शेष ना था। कोई उपाय कोई साधना कुछ भी ना थी। लेकिन ऐसी स्थिति भी ज्यादा दिन ना चली। आखिर तो कुछ और ही होने वाला था। शायद यही उसके होने की आहट थी  ,शायद यही मौत की दस्तक थी जिसने सभी कुछ मिटाना था। शायद यही उस शाश्वत जीवन की शुरुआत थी  जिससे  एक अनहोनी घटना घटी।  पार्को में बैठा हुआ अब कौआ जो पहले कभी शायद दिखता भी ना था। अब गीत गाता दिखाई देने लगा।

पत्ते जो  पेड़ों पर कभी ना दीखते थे आज वही पत्ते पेड़ों पर नाचते हुए दिखाई देने लगे थे पहले पेड़ो के ऊपर लगे पत्ते भी अच्छे नहीं लगते थे और आज  पेड़ों के नीचे पड़े हुए सूखे पत्ते भी नृत्य करते नजर आने लगे। पहले जहां शायद फूल भी नजर नहीं आते थे, उनसे भी कुछ ना दिखता था। आज वंही पर कांटे भी सुंदर दिखने लगे हवा के झोंकों से नाचते प्रतीत होने लगे। कबूतरों का नित्य दिखने लगा। चिड़ियों की मस्ती दिखने लगी। छोटी-छोटी तितलियां भोरे उसी के आनंद के सागर में नृत्य करती प्रतीत होने लगी।

सूर्य चांद तारे सभी मुस्कुराते दिखने लगे। फिर तो छोटे छोटे कंकरो पर पत्थरों पर प्रकाश भी नाचता नजर आने लगा।  जो प्रकाश आज से पहले भी था जिसके कारण ही हम देख रहे थे वह प्रकाश भी नजर आज तक नहीं आया था। आज वह भी दिखने लगा। आज धूल के कणों के ऊपर प्रकाश नाचता नजर आने लगा। आज अनुभव हुआ कि एक ही सूते में यह पूरी प्रकृति यह पूरी श्रिष्टि हम सभी गुथे हुए हैं।

आज ज्ञात हुआ कि परमात्मा की बनाई हुई सृष्टि कितनी सुंदर है, उसमें कौवा भी उतना ही सुंदर है जितनी कोयल। उसमें कुत्ता भी उतना सुंदर है जितनी गाय। अब सृष्टि कितनी सुंदर हो गई थी। और प्रकृति भी और परमात्मा भी अब सभी धारणाये खो गई थी । अब ना तो यह संसार ही पहले वाला संसार बचा था। और ना ही देखने वाला पहले वाला देखने वाला बचा था। अब शायद वह सूक्त शाश्वत मूर्तिमान होकर खड़ा हो गया कि कण-कण में वह परमात्मा विराजमान है।

जर्रे जर्रे  को वही आलोकित कर रहे है, आज पूरी दुनिया नहीं हो गई थी।  आज दुनिया को देखने वाला भी नया हो गया था। एक नई ही दृष्टि मिल गई थी और यह कोई भी स्वपन नहीं था। यह तो खुली आंखों से हो रहा था। ऐसा अनेकों दिन रहा धीरे-धीरे सृष्टि ही ऐसी हो गई। फिर कुछ भी ना बदला। वहां सभी कुछ नया हो गया ,वहां परमात्मा भी नया हो गया हो। तब जाकर पता लगा की मैं जिस परमात्मा ढूंढे जा रहा था वो ये ही तो है  वही तो महका  रहा है। सृष्टि को।  वही तो नाचता है सृष्टि को। अब वह साक्षात देखने लगा था।

खुली आंखों से देखने लगा था। अब तो उसका भी दीदार होने लगा और उसके साथ-साथ स्वयं के जीवन का भी दीदार होने लगा। और यही सोच है यही सकता है कि जिस दिन तुम उसे देख पाते हो, उसी दिन स्वयं को भी देखा जा सकता है और जिस दिन स्वयं को देख पाते हो उसी दिन तुम उसे भी देख सकते हो। इतना सब अनुभव होने के बाद परमात्मा ने यही बीड़ा उठाया कि अब जो आनंद अब जो मस्ती उन्हें मिली है, अब जो पागलपन  उन्हें मिला है वह संसार को दिया जाए।  जो उसके प्रेम की शराब परमात्मा ने पी है वो उन सभी को पिलाई जाये जो उसको  पीना चाहते हैं।

उन्हें भी दो दो घुट पिलाई  जाए और ज्ञात हुआ कि यही तो बुद्धत्व है। यही परमात्मा का अवतरण है। परमात्मा उतरता है इसी धारा पर।  पूरा पूरा उतरता है बस तुम हटो बीच में से। मैं का मिटना और उसका पैदा होना एक ही साथ घटता है। परमात्मा का अवतार नहीं होता। परमात्मा का अवतरण होता है बुद्धौ में।

तभी नाम पड़ा परमात्मा।  क्योंकि यंहा सभी तो परमात्मा है। परमात्मा को ज्ञात हो गया। और तुम्हें अभी तक ज्ञात नहीं है। हो तो तुम भी परमात्मा।  अगर तुम्हें भी धर्म का पथ जानना है तो मिटो , हटो ,सरको बीच में से।  और जीवन का आनंद लो। उसकी बनाई हुई सृष्टि के उत्सव में शामिल हो जाओ