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What is Karma: कर्म बड़ा हैं या धर्म ? जानें क्या कहते हैं परमात्मा

एक ने प्रश्न पूछा कहता है परमात्मा धर्म की परिपूर्णता तक कोई भी क्यों नहीं पहुंच पाता है. धर्म एक पहेली क्यों बन गयी है. धर्म एक ऐसी भूल-भूलैया बन गया है जिसकी दूसरी ओर कोई भी क्यों नहीं निकल पाता है. तुम्हारे ही कारण…तुम सबके कारण…तुम सब क्या मानते हो धर्म को(What is Karma)….और धार्मिक होने को तुम क्या मानते हो. तुम हिंदू, मुस्लिम, सिख, ईसाई, बौद्ध, जैन…और ना जाने 365 प्रकार के धर्म दुनियाभर में प्रचलित हैं. वो तो बन जाते हो लेकिन धार्मिक नहीं बन पाते.

पैदा हुआ बच्चा तो तुम्हारा धार्मिक हो गया ?(What is Karma)

क्या हिंदू या मुस्लिम बनना…सिख-ईसाई बनना…धार्मिक हो जाना है. फिर तो धर्म बहुत ही सस्ती वस्तु हो गई. और फिर तो तुम सभी का पैदा हुआ बच्चा भी धार्मिक हुआ. जब पैदा हुआ बच्चा भी धार्मिक है तो मंदिर या मस्जिद क्यों बना रहे हो. गिरजे और गुरुद्वारे क्यों बनाये जा रहे हो. क्यों अपने देश का नुकसान कर रहे हो. हम जो करोड़ों-अरबों रुपया लगा रहे हैं मंदिर और मस्जिद के नाम पर या गिरजे और गुरुद्वारे के नाम पर…बौद्ध विहार या जैन मंदिरों के नाम पर…क्यों ना इसे तोड़ दें. क्यों ना मंदिर, मस्जिद, गिरजे, गुरुद्वारे, बौद्ध विहार या जैन मंदिरों को मिटा दें. सारे शास्त्रों को क्यों ना नदी में बहा दें. फिर चाहे वो गीता हो या कुरान…बाइबल हो या ग्रंथ…धम्मपद हो …इस जैसे हजारों शास्त्र हैं. क्योंकि पैदा हुआ बच्चा तो तुम्हारा धार्मिक हो गया.

धर्म एक शांति का नाम था

हिंदू ने अपने बच्चे को भगवा पहनाया. चोटी रखी..कंठी पहनाई…जनेऊ धारण करवाया. हो गया हिंदू…हो गया धार्मिक… मुस्लिम ने अपने धर्मानुसार खतना किया और हो गया धार्मिक. मस्जिद और मदरसों में पढ़ने भेज दिया. वो हो गया धार्मिक…धर्म को तुम्हारे महात्माओं ने धर्म विमुख कर दिया है. धर्म एक शांति का नाम था. धर्म तुम्हारे अंदर एक पुष्प के खिलने का नाम था (What is Karma). और उन्होंने धर्म को बना दिया हिंदू-मुस्लिम…सिख-ईसाई-बौद्घ-जैन…वास्तव में अपने जीवन को अपनी परिपूर्णता में जी लेना ही धर्म है. लेकिन तुम क्या कर रहे हो ?

प्रकृति की ओर तो तुम खुद आकर्षित होते हो (What is Karma)

तुम एक और उदाहरण देखो…तुम कहीं भी जाते हो प्रकृति में…तुम्हारा मन नदी ,पर्वत, जंगल, फूल, वर्षा, पशु, पक्षी इन सभी की ओर स्वंय आकर्षित होता है. हिंदू का भी, मुसलमान का भी, सिख का भी, ईसाई का भी…ऐसा क्यों होता है (What is Karma). क्या तुम्हें कोई समझाता है कि नदी अच्छी लग रही है. किसने बताया कि नदी अच्छी लग रही है. लेकिन तुम्हें अच्छी लग रही है. तुम्हें किसने बताया कि पर्वतों के ऊपर सफेद-सफेद बर्फ बिखरे पड़े हैं. वह सुंदरता बिखेर रहे हैं. लेकिन लग रही है तुम्हें…तुम्हारा मन उसकी ओर क्यों आकर्षित हो रहा है. क्योंकि वो सभी प्रकृति है. उसमें जीवन है. तुम भी प्रकृति हो और तुम भी जीवन हो.

किसी अर्थ की चाह में तुम बैठ जाते हो

तुम नदी के किनारे बैठो…समुद्र के किनारे बैंठो…आसमान में चांद-तारों को देखो. निहारते हो ना उसे…आठ घंटे भी निहार लो तो बोर नहीं होता मनुष्य…और अपने घर में बैठा…अपने हाथ में…तुम स्वंय अनुभव करो. ये गीता, कुरान, बाइबल, धम्मपद कुछ भी लेकर बैठ जाओ. देखना तुम्हें एक घंटे के बाद नींद आने लगेगी. उबासी आने लगेगी. सोचोगे की अब इसका क्या करूं. क्या प्रयोजन है इसका.

अच्छा एक अध्याय खत्म हो गया. पढ़ लिया…रट लिया…प्रार्थना कर ली…अब क्या करूं. हां ये बात अलग है कि तुम किसी अर्थ की चाह पर उसे लेकर बैठे हो. अर्थ का मतलब केवल धन नहीं…बल्कि स्वर्ग , बैकुंठ, पुण्य भी है. तो 24 घंटे भी बैठ सकते हो. क्योंकि लालच है ना…चाह है ना किसी वस्तु की. धन की हो या फिर स्वर्ग की….मुक्ति की हो या मोक्ष की…पुण्य की हो या हिंदू को अपने ईश्वर की और मुसलमान को अपने ईश्वर की.

बातें सत्य लगे तो स्वंय को बदलना

भिखमंगापन, स्वार्थ, चाह …इसी कारण तो बैठो हो…वरना बैठता कौन है. इन ग्रंथों और मुर्तियों को लेकर…मेरी बात को ध्यान से सुनना…ये बात मैंने कहां से पकड़ी है. अपने भीतर से…मेरे अंदर भी यही कमियां थीं (What is Karma). मैं अपने मन का विश्लेषण कर रहा हूं. तुम्हारे मन का स्वंय हो गया. तुम अपने मन का विश्लेषण करो तो यही वस्तुएं पाओगे कि क्यों बैठे हैं उसे लेकर…अपने-अपने ग्रंथों को, अपनी-अपनी मुर्तियों को, अपने-अपने मंदिरों और मस्जिदों को…मेरी बात तुम्हें कड़वी लग सकती है.

कड़वे होंगे ही…बार बार सुनना…स्वंय से पूछना कि सत्य है या अस्त्य है. अगर सत्य दिखे तो स्वंय को बदलना और अगर असत्य दिखे तो तुम सोचना की तुम जो राह पर चलते हो…सड़क किनारे…कोई कुत्ता बैठा था. भौंकने लगता है. अब तुम कुत्ते से लड़ने थोड़े लग जाते हो. तुम अपनी राह पर चल देते हो. सत्य लगे तो स्वंय को बदलना और असत्य लगे तो सोच लेना कि कोई कुत्ता भौंक रहा था.

अर्थ में तुम उलझ गये

हम बात कर रहे थे प्रकृति की…जीवन की. हम बात कर रहे थे कि धर्म उलझ क्यों गया है. मैं तुम्हें उदाहरण दे रहा था कि प्रकृति को निहारते हुए तुम कभी भी थकते नहीं. लेकिन फिर भी प्रकृति से तुम्हें कोई अर्थ या प्रयोजन भी नहीं है. किस कारण से तुम प्रकृति को निहार रहे हो. कोई अर्थ तो है नहीं…कोई प्रयोजन तो है नहीं. कोई लाभ तो है नहीं. लेकिन मन को अच्छा लगता है. अब बात करते हैं धर्मों की कि ये उलझा क्यों रहे हैं. धर्म इसलिए तुम्हें उलझा रहा है क्योंकि उसके साथ तुमने अर्थ या प्रयोजन लगा रखा है. ये गलती तुम्हें किसने सिखाई…तुम्हारे ही धर्मगुरुओं ने…क्या अर्थ है. क्या प्रयोजन है.

प्रकृति ने तुम्हें जैसा बनाया है परिपूर्ण बनाया

हिंदू के अर्थ की बात करते हैं. वह कहता है मंदिर जाओगे. परिक्रमाएं करोगे. धर्म ग्रंथ पढ़ोगे. तो तुम्हें स्वर्ग मिलेगा. बैकुंठ मिलेगा. एक ओर मैं देखता हूं कि कोई संतपाल…कोई रामापाल…वो कहता है कि सतलोक है. वो इसके स्वप्न दिखा रहा है. अर्थ…जोड़ दिया उसने अर्थ…क्योंकि तुम्हारा मन वो लालची था. उसने अर्थ जोडकर दिखा दिया. तुम उसके पीछे चल दिये. वो खुद कहीं नहीं पहुंचा है. तुम्हें भी गड्ढे में गिरा देगा. ये गलती तुम्हें तुम्हारे ही धर्मगुरुओं ने सिखाई है. परमात्मा ने…ईश्वर ने..अस्तित्व ने…प्रकृति ने तुम्हें जैसा बनाया है. परिपूर्ण बनाया है. और तुम्हारा जीवन ही परमात्मा है. तुम्हारा जीवन ही मुक्ति है. तुम्हारा जीवन ही मोक्ष है. और जीवन जहां है वो पूर्ण रूप से सुखी है. उसमें कुछ भी और भरना नहीं है. उसमें कुछ भी और होना नहीं है.

किसने धर्म को उलझा दिया (What is Karma)

अब नीम के पेड़ को नीम ही बनना था. आम थोड़े उगाने थे. और आम के पेड़ को आम ही तो बनना था. गुलाब के पौधे की तरह खुशबू थोड़े फैलाना था. लेकिन तुम कुछ और होने चल दिये. किसी को सिद्ध होना है. किसी को महावीर होना है. किसी को बुद्ध होना है. किसी को बैकुंठ चाहिए. किसी को स्वर्ग…ये कुछ और होने की जो चाह है ना…इसी ने धर्म को उलझा दिया है. मैं तुम्हें क्या समझा रहा हूं. मैं तुम्हें समझा रहा हूं कि जीवन…मोक्ष…मुक्ति…एक ही अवस्था का नाम है.

जीवन और मोक्ष एक ही वस्तु है

हुआ क्या है इस दुनिया में…तुम्हारे ही महात्माओं ने…जीवन और मोक्ष या सुख को…जीवन को और स्वर्ग को…जन्नत को…तुम्हें और परमात्मा को दूर कर दिया है. ये दरार तुम्हारे महात्माओं का है. तुम्हारे ही धर्म (What is Karma) शास्त्रों ने डाली है. जीवन और मोक्ष एक ही वस्तु है. मुक्ति, स्वर्ग, तुम और परमात्मा…एक ही वस्तु है. ये जो मैं तुम्हें समझा रहा हूं. यदि तुम सही-सही समझ जाओगे तो पूरा खेल तुम्हें समझ में आ जाएगा. वो तुम्हें क्यों नहीं समझाते..इसलिए नहीं समझाते…क्योंकि उन्हें जितना समझ आएगा. उतना ही तो समझाएंगे.

उन्हें गीता समझ आ गयी. वो तुम्हें गीता समझा रहे हैं. उन्हें भागवत समझ आ गयी. वो तुम्हें भागवत समझा रहे हैं लेकिन कैसे समझ आयी. जैसे एक स्कूल के बच्चे को उसके क्लास के अनुसार पुस्तक समझ आती है. वो बाद में बड़ा होकर उसी स्कूल या कॉलेज में टीचर हो जाता है. और तुम्हें समझा देता है.

पागल बनाये नहीं जा सकते हैं

क्या केवल किताब समझ लेना धार्मिक होना है. किसी ने गीता समझी तो किसी ने रामायण…किसी ने भागवत…किसी ने कुरान…लेकिन किताबें ही तो समझी. क्या वो धार्मिक हो गये. नहीं धार्मिक होना हिंदू या मुसलमान होना है ही नहीं…अपनी आंखें खोल लेना धार्मिक होना है.

मैं खुद एक कृष्ण भक्ति संस्था में जाता था. करीब 20 वर्ष वो बखान करते थे कि उनके जो गुरु थे…गुरु के गुरु यानी परम गुरु…उन्होंने अपने जीवन में 64 मठों की स्थापना की. लेकिन ध्यान से देखों क्या वो 64 मठ मिलकर एक भी कृष्ण बना पाये. एक भी चैतन्य बना पाये. एक भी नानक बना पाये. एक भी सूर बना पाये. नहीं…क्या वो एक के अंदर भी वीणा बना पाये. क्या किसी के ह्दय की वीणा जागृत हुई. नहीं हो ही नहीं सकती है. क्योंकि पागल बनाये नहीं जा सकते हैं.

धार्मिक स्वंय ही हुआ जाता है (What is Karma)

मैं एक को पागल क्यों कह रहा हूं. ये तुम्हारे पागलखाने वाले पागल नहीं…ये उस परमात्मा की मस्ती में डूबने वाले पागल हैं. तुम घर के एक सदस्य को भी पागल बनाकर पागलखाने नहीं भेज सकते हो. अगर तुम्हें लगता है तो चेष्टा करके देख लो. तुम स्वंय कहोगे कि असंभव है. कैसे बनाएं पागल. लेकिन पागल लोग तो होते हैं. और स्वंय ही बैठे बिठाये हो जाते हैं. उसी प्रकार धार्मिक स्वंय ही हुआ जाता है और स्वंय ही हो जाता है.

धार्मिक तुम बना नहीं सकते. मैं भी नहीं बना सकता हूं. मैं तुम्हें रास्ता बता सकता हूं. समझा सकता हूं कि धार्मिक कौन है. बना तो मैं भी नहीं सकता हूं. वरना तुम्हें धार्मिक बनाने का प्रयत्न तो किया जा रहा है. मंदिर-मस्जिद दिखाकर. गिरजे-गुरुद्वारे दिखाकर. जैन मंदिर…बौद्ध विहार दिखाकर..तुम्हारे अनेकों ग्रंथ रखकर..अनेकों मुर्तियां रखकर. हुआ कोई धार्मिक…

धर्म कुछ और है

प्रश्न ये था कि धर्म तक कोई क्यों नहीं पहुंच पाया. क्यों गोल-गोल घूमता रहता है. केवल इसलिए क्योंकि जो धर्म तुम्हें समझाना चाह रहे हैं वो भी कहीं तक नहीं पहुंचे. वो भी गोल-गोल घूमे जा रहे हैं. उन्होंने भी धर्म को हिंदू,मुसलमान,सिख, ईसाई होना मान लिया है. हिंदू तो तुम हो…मुसलमान तो तुम हो…सिख या ईसाई तो तुम हो…धर्म कुछ और है. मैं तुम्हें पग-पग…क्षण-क्षण…उसी मार्ग पर लेकर जा रहा हूं. लेकिन तुम्हें केवल इतना करना है कि आगे भी बढ़ना है और पिछला छोड़ना भी है. पिछला छोड़ते जाओ..स्वयं धर्म तक पहुंच जाओगे. रस्सी खोलो अपनी. नाव तो हवा से ही बह जाएगी. नाव में चप्पू ज्यादा नहीं चलाने पड़ेंगे. पतवार खोल दो…

आज केवल इतना ही…शेष किसी और दिन…अंत में चारों तरफ बिखरे फैले परमात्मा को मेरा नमन…तुम सभी जागो…जागते रहो…

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